संवाददाता निधि भार्गव मानवी ईस्ट दिल्ली
कोरोना___एक पहलू ये भी!
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समझने की कोशिश कर रहें हैं न आप , इस लाॅकडाउन के चलते अपने बच्चों की मनोदशा? इन परिस्थितियों में बच्चों की मुस्कान उनकी खिलखिलाहट चार दिवारी में कैद होकर रह गयी है। पार्क सूने पढ़े हैं, बच्चे खुली हवा से वंचित हो गये हैं, अपने अभिभावकों द्वारा बार बार दी जाने वाली हिदायतों से परेशान और आतंकित भी। जो बच्चे बहुत छोटे हैं वो तो ठीक से समझ भी नहीं पा रहे होंगे कि अस्ल में ये क्या हो रहा है। और अभिभावकों के लिए भी मुश्किल हो रहा होगा उन्हें समझाना और उनकी उत्सुकता शांत करना। हां, जो बच्चे समझदार हैं वो समझ तो रहे हैं पर उबाऊ स्थिति का सामना भी कर रहे हैं। लाकडाउन से पहले जहां हम बच्चों को इंटर्नेट से दूर रखना चाहते थे। क्योंकि मौका मिलने पर वो गेम्स में लग जाते थे। आज हालात ये है कि उनकी पढ़ाई पूरी तरह से इंटर्नेट पर ही आश्रित हो गयी है। आनलाइन कक्षाओं से पढ़ाई का हर्जा तो नहीं हो रहा परंतु बच्चों को काफी देर तक इंटर्नेट से चिपके रहना पढ़ता है। बाहर जाकर खेलने से शारीरिक श्रम भी हो जाता था और बच्चे खुली हवा में खुद को आजाद समझते थे। और अब ये बंदिशें। कहते हैं हर मामले हर समस्या को दूसरी नज़र से भी देखना समझना चाहिए और स्थिति सामान्य होने का इंतजार करना चाहिए। देखा जाए तो इस घर बंदी ने रिश्तों को करीब लाकर खड़ा कर दिया है। जो बस भाग रहे थे जिंदगी की आपा धापी में। वक्त ही नहीं होता था किसी के पास अपने अपनों के लिए। घर में रहकर बच्चे बुजुर्गों के साथ वक्त बिताना सीख रहे हैं। अपने माता पिता का घर में हाथ बंटा रहे हैं। रिश्तों का मूल्य शायद इस मुश्किल वक्त में समझ पाएंगे ये। देश में बाल मजदूरी एक बहुत बढ़ी समस्या है। सरकार की कोशिशों के बावजूद जहां तहां बाल मजदूर मजदूरी करते और भीख मांगते दिख जाते हैं। जो मजदूरी से अपना भरण पोषण करते हैं। इस बुरे वक्त में उनकी मनोदशा कौन समझेगा? विचारणीय है। है ईश्वर, मासूमों पर तरस खाओ और शीघ्र अति शीघ्र इस कोरोना से हम सबको निजात दिलवाओ। तरस गयीं हैं गलियां भी आवाजाही के लिए। ये पार्क कब होंगे गुलजार हंसी ठहाकों से। स्कूल कालेज में फिर कब भविष्य बनने शुरू होंगे।बच्चों के मन में भय है। फिर से लाकडाउन बढ़ तो नहीं जाएगा?
इस बुरे वक्त में हमें कोरोना के खिलाफ लड़ने वालों की इस मुहीम के समक्ष नतमस्तक भी होना चाहिए।
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