स्मिता श्रीवास्तव लखनऊ
'माँ'
'विचारों का प्रवाह
बहाकर फिर ले गया,
अतीत के उसी तट की ओर
जहाँ था हरा-भरा एक विशाल वृक्ष,,,
'अपने तन में
तुम्हारे अंकुरण का
अहसास होते ही,
तिनका-तिनका जोड़कर बनाया
मैंने हर्षित मन से एक अंकुरक,,
मेरे जीवन में तुम्हारा प्रवेश होते ही,,,
भूख तुम्हे छू भी न पाए
इसी उद्देश्य को लेकर,
अपनी सारी इच्छाओं को प्रतिबंधित कर,
अपने अहं का उत्सादन कर
निकल पड़ी थी घोंसले से,
घर-घर जाकर दाना लाकर
डालती तुम्हारे चोंच में
कि भूख तुम्हे छू भी न पाए
अपने पंखों को समेटे हुए
तुम्हारे पंख आने के इंतजार में
बिताए जाने कितने उलझन
के क्षण मैंने,,
परन्तु मैं प्रसविनी
मेरा ममत्व सोच भी न पाया
कि पंख आने पर तो उड़ जाओगे,
ममता तो नहीं चाहती अपने प्रेम की कीमत,
फिर भी आशान्वित थी मैं कि
मेरी जीवन सन्ध्या में
रोशनी की दीप जलाओगे'''
मेरी ढल चुकी आँखों को
प्रकाश का दीपक दिखाओगे...
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