बबली सिन्हा गाज़ियाबाद यू पी
मन
शांत मन के
गहराईयों में तैरते है
कई बात ऐसे
जिसके जिक्र का कोई
स्पष्ट वजूद नहीं होता
पर कहीं न कहीं होती है
उसकी भी सूरत
जो हमें विचलित करती है
कब, क्यों, कहां, कैसे जैसे
सवालों से
पर मानसिक बंधन में कैद बातें
मन के आवरण में
विचरते तो है पर प्रश्न बनकर
चेतना के गलियारों से
बाहर निकलने का हिम्मत नहीं जुटा पाते
जिम्मेदारी, अनुशासन, लिंग भेद आदि का आधिपत्य
इतना प्रभावी होता है कि
हम ठूंठ बन जाते हैं जो
देखता, समझता तो है पर कुछ कह, कर पाने में
असमर्थ है
मन बन्धनों से मुक्त होता है
ऐसा कहते हैं
पर दायरा हम खुद बना लेते हैं
या यूं कह लें बन जाता है
आपको मिली आजादी या फिर
आपके जीवन शैली के अनुरूप
कुछ की जिंदगी भी तो
एक खामोश चौराहे की तरह है
जिसका केंद्र टेढ़ी मेढ़ी रास्तों में जकड़ा हुआ है
और उसके हर दर्द में
किसी न किसी की खुशी है।
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