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गुलाम नबी आजाद की राज्यसभा से विदाई और भारत का संसदीय लोकतंत्र



  सत्यव्रत शुक्ल

भारतीय राजनीति में रूचि रखने वालों के लिए पिछले दो दिन अत्यंत महत्वपूर्ण है. ये भी सुखद संयोग है कि पिछले दो दिनों से राज्यसभा ही चर्चा में है. राजनीति के साथ-साथ संसदीय लोकतंत्र को समर्थकों के लिए यह किसी उपहार की तरह है. सोमवार को  प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव के समय अपने विचार रख रहे थे. प्रधानमंत्री मोदी के भाषण की हर जगह चर्चा भी हुई. वही आज राज्यसभा के लिए एक महत्वपूर्ण दिन था. आज उच्च सदन के चार सदस्यों का कार्यकाल समाप्त हो रहा था. जिनमें सबसे महत्वपूर्ण नाम है राज्यसभा में नेता विपक्ष गुलाम नबी आजाद का. 

राज्यसभा को उच्च सदन कहा जाता है और आज फिर राज्यसभा ने इसको सही सिद्ध किया. जब नेता विपक्ष की विदाई भाषण में प्रधानमंत्री भावुक हो गए. दोनों ने ही एक दूसरे की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है. प्रधानमंत्री मोदी ने गुलाम नबी आजाद के साथ अपने पुराने संबंधों को याद किया. प्रधानमंत्री मोदी ने बताया कि किस तरह लॉकडाउन के समय गुलाम नबी आजाद के ही सुझाव पर उन्होंने सभी दलों के साथ बैठक की थी. एक आदर्श संसदीय लोकतंत्र में ऐसा ही होना चाहिए. जहाँ पक्ष-विपक्ष एक दूसरे को तमाम मतभेदों के बाद भी अच्छे सुझाव देता है. प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि गुलाम नबी आजाद दल के साथ देश की भी सोचते हैं, उनकी जगह भरना किसी के भी लिए मुश्किल होगा.

गुलाम नबी आजाद कश्मीर के नेता है. जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री भी रह चुके है. इन्होंने 370 के हटने का भी विरोध किया था. ये भी गजब संयोग था कि आज राज्यसभा में प्रधानमंत्री मोदी के बगल में गृहमंत्री अमित शाह बैठे थे. जिन्होंने ही 370 को हटाने का विधेयक राज्यसभा में पेश किया था. आज गुलाम नबी आजाद ने कश्मीरी पंडितों को भी याद किया और उम्मीद जताई कि जल्द ही उनकी वापसी होगी. इसके साथ ही उन्होंने उड़ीसा में आई सुनामी का भी उल्लेख किया और किस तरह से उन्होंने उस समय तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहार बाजपेई की मदद की थी. अपने विदाई भाषण में गुलाम नबी आजाद ने कहा कि मैं उन सौभाग्यशाली लोगों में से हूँ, जो कभी पाकिस्तान नहीं गए. जब मैं पाकिस्तान में परिस्थितियों के बारे में पढ़ता हूँ, तो मुझे हिन्दुस्तानी मुसलमान होने पर गर्व महसूस होता है.

पिछले कई सालों से संसद की छवि बहुत बिगड़ चुकी है. ऐसे में इस तरह के दृश्य हम जैसे राजनीति के रुचिकर लोगों के लिए वरदान की तरह होते हैं.  गुलाम नबी आजाद के पास लंबा संसदीय अनुभव भी है, जिसे वो समय-समय पर दिखाते भी रहते है. सभी दलों के नेताओं ने गुलाम नबी आजाद की प्रशंसा की और उनके अनुभव को अतुलनीय बताया. आज जिस तरह से सभी दलों के नेताओं ने एक आदर्श संसदीय प्रणाली को दर्शाया है, उससे ये विश्वास और सशक्त हुआ है कि भारत के संसदीय लोकतंत्र में अभी भी बहुत कुछ है जो बहुत अच्छा है. वैसे दुर्भाग्य यही है कि आज का ये वातावरण ज्यादा दिन नहीं चलने वाला है. आदर्श स्थिति तो यही है कि दोनों सदनों में बहस हो और खूब हो. इससे हमारा लोकतंत्र और मजबूत ही होगा पर पर ऐसा हो नहीं पता है. इस दुर्भाग्य के लिए सभी दल एकसमान दोषी है. अब समय आ गया है कि देश की जनता इस ओर भी ध्यान आकर्षित करे. गुलाम नबी आजाद ने अपने विदाई भाषण का अंत प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की ओर देखकर जिस शेर से किया, मैं भी अपने लेख का उसी के साथ अंत करना चाहता हूँ- 

              नहीं आएगी याद तो बरसों नहीं आएगी

      मगर जब याद आओगे तो बहुत याद आओगे

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