नीरज कुमार वर्मा नीरप्रिय
भविष्य की चिंता मनुष्य को कायर बना देती है। परंतु स्वामी विवेकानंद का यह मानना था कि हमारे देश के युवाओं को चिंता नहीं, चिंतन करने की जरुरत है। जब हम किसी विषय पर चिंतन करते है तो उसके समाधान अवश्य निकलकर आते है। उनका मानना था कि आज कि युवा पीढ़ी को अपने अतीत के उन्नत रुप पर निगाह रखते हुए भविष्य का निर्माण करना चाहिए। अतीत से ही भविष्य निर्मित होता है। उन्होंने कहा था कि जहाँ तक हो सके, अतीत की ओर देखो, पीछे जो निरंतर निर्झर बह रहा है, आकंठ उसका जल पियो और उसके बाद सामने देखो और भारत के उज्ज्वलतर, महत्तर और पहले से और भी ऊंचा उठाओं। हमारे पूर्वज महान थे। पहले यह बात हमें याद करनी होगी। हमें समझना होगा कि हम किन उपादानो से बने है, कौन सा खून हमारी नसों में बह रहा है। उस खून पर हमें विश्वास करना होगा। और अतीत के उसके कृतित्व पर भी, इस विश्वास और अतीत गौरव के ज्ञान से हम अवश्य एक ऐसे भारत की नींव डालेंगे, जो पहले से श्रेष्ठ होगा। यह सही है भारत देश का अतीत में अवनति का काल भी रहा है परंतु इससे हमें निराश होने की आवश्यकता नहीं है। हमें अधंकार पर न ध्यान देकर प्रकाश से प्रेरणा लेकर आगे बढ़ने की जरुरत है।
वर्तमान समय में भारत में जाति, धर्म तथा संप्रदाय के नाम पर समाज में विभेदीकरण तीव्रगति से पनप रहा है। देश की समस्याएँ अधिक जटिल तथा गुरुतर होती जा रही है। समाज में भेदभाव के कारण पारस्परिक सौहार्द का अभाव पाया जा रहा है। इस कारण से राष्ट्र कमजोर हो रहा है। विवेकानंद ने इसे चिकित्साशास्त्र की भाषा में कहा है कि हम जानते है कि किसी भी बीमारी के फैलने के दो कारण होते है एक तो बाहर से कुछ विषैले किटाणुओं का प्रवेश दूसरा शरीर कि अवस्था विशेष। यदि शरीर की अवस्था ऐसी न हो जाए कि वह किटाणुओं को घुसने दे, यदि शरीर की जीवनी शक्ति इतनी क्षीण न हो जाए कि किटाणु शरीर में घुसकर बढ़ते रहे तो संसार में किसी भी कीटाणु में इतनी शक्ति नहीं जो शरीर में पैठकर बीमारी पैदा कर सके। वास्तव में प्रत्येक मनुष्य के शरीर के भीतर सदा करोड़ों कीटाणु प्रवेश करते रहते है परंतु जब तक शरीर बलवान है हमें उनकी कोई खबर नहीं रहती। जब शरीर कमजोर हो जाता है तभी ये विषैले किटाणु उस पर अधिकार कर लेते है और रोग पैदा करते है। राष्ट्रीय जीवन के बारे में भी यही बात है। हमें राष्ट्रीय एकता को कमजोर करने वाले सामाजिक विषमता रुपी जो तत्व विघमान है उसे दूर करना होगा। तभी यह देश एक सशक्त राष्ट्र बन सकता है।
विवेकानंद का मानना है कि शिक्षा का उद्देश्य चरित्र गठन होना चाहिए। केवल कुछ विषयों को कंठस्थ कर लेने से शिक्षा पूर्ण नहीं मानी जाती है। शिक्षा तभी पूर्ण मानी जाती है जब वह मनुष्य के व्यक्तित्व में परिवर्तन कर दे। उन्होंने संस्कारित शिक्षा पर विशेष जोर देते हुए कहा है कि तुम संसार के सामने प्रभूत ज्ञान रख सकते हो, परन्तु इससे उसका विशेष उपकार न होगा। संस्कार को रक्त में व्याप्त हो जाना चाहिए। वर्तमान समय में हम कितने ही राष्ट्रों के संबंध में जानते है जिनके पास विशाल ज्ञान का आगार हो, परंतु इससे क्या? वे वाघ की तरह नृशंस है, वे बर्बरों के सदृश है, क्योंकि उनका ज्ञान संस्कार में परिणत नहीं हुआ है। सभ्यता की तरह ज्ञान भी चमड़े की ऊपरी सतह तक ही सीमित है, छिछला है और एक खरोंच लगते ही वह पुरानी नृशंसता जग उठती है। ऐसी घटनाएं हुआ करती है। यही भय है। जनता को उसकी बोलचाल की भाषा में शिक्षा दो, उसको संस्कृति का बोध दो। जब तक तुम यह नहीं कर सकते तब तक उनकी उन्नत दशा कदापि स्थाई नहीं हो सकती है।
वर्तमान शिक्षा में ज्ञानपक्ष पर ज्यादा बल दिया जा रहा है जिसके कारण ह्रदय पक्ष शून्य पड़ता जा रहा है। मस्तिष्क के विकास के साथ ह्रदय का विकास होना नितांत आवश्यक है। जब दोनों का सामंजस्यपूर्ण तरीके से विकास होता है तभी व्यक्ति, समाज तथा देश संतुलित प्रगति करेगा। इस एकांगी उन्नति पर जयशंकर प्रसाद ने कामायनी में चिंता जाहिर करते हुए लिखा है-
बुद्धि, मति, मनीषा, आशा और चिंता है तेरे कितने नाम।
अरे पाप है तू जा यहां नहीं कछु तेरा काम।।
ऐसे में शिक्षा का यह एकांगी पहलू मनुष्य के चरित्र का गठन नहीं कर सकता है। विवेकानंद ने कहा है कि शिक्षा का मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे दिमाग में ऐसी बहुत सी बातें इस तरह ठूंस दु जाय कि अन्तर्द्वन्द्व होने लगे और तुम्हारा दिमाग उसे जीवनभर पचा न सके। जिस शिक्षा से हम अपना जीवन निर्माण कर सके, मनुष्य बन सके, चरित्र का गठन कर सके और विचारों का सामंजस्य कर सके वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है। यदि तुम अच्छे भावों को पचाकर तदनुसार जीवन और चरित्र गठित कर सके हो तो तुम्हारी शिक्षा उस आदमी कि अपेक्षा बहुत अधिक है जिसने एक पूरे पुस्तकालय को कंठस्थ कर रखा है। यदि बहुत तरह कि खबरो का संचय करना ही शिक्षा है तो पुस्तकालय संसार में सर्वश्रेष्ठ मुनि और विश्वकोश ही ऋषि होंगे। इस प्रकार उन्होंने तथ्यों तथा सूचनाओं के संग्रह को शिक्षा नही माना है। वर्तमान शिक्षाशास्त्री भी विवेकानंद के इन विचारों से सहमत है। ह्रदय और मस्तिष्क का जब सामंजस्यपूर्ण विकास होगा तभी नागरिकों भविष्य संवेरगा।
भारतीय समाज में जो ऊंचा नीच की धारणा विघमान है उसे उन्होंने अपने ढंग से सुलझाने का प्रयास किया है। उनका मानना है कि उच्च वर्णों को नीचे उतारकर इस समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता है बल्कि नीची जातियों को ऊंची जातियों के बराबर उठाना होगा। जाति के नाम पर जो लड़ाई झगड़े होते हैं उससे वे काफी व्यथित रहते थे। उन्होंने कहा है कि मुझे विशेष दुख इस बात पर होता है कि वर्तमान समय में भी जातियों के बीच में इतना मतभेद चलता रहता है। इसका अंत होना चाहिए। यह दोनों ही पक्षो के लिए व्यर्थ है। हर एक अभिजात वर्ग का कर्तव्य है कि अपने कुलीन तंत्र कि कब्र वह आप ही खोदे और जितना शीघ्र हो सके उतना ही अच्छा है। जाति पाॅति के नाम पर जो तू तू मैं मैं होता है वह बंद होना चाहिए। यदि हम इसी दिशा में अपनी ऊर्जा लगायेंगे तो संपूर्ण राष्ट्र बिखर जायेगा। विश्व में जितने भी देश प्रगति पथ पर अग्रसर है वे आपसी भेदभाव भुलाकर कठोर रुप से संगठित है। उन्होंने कहा है कि यदि तुम संसार के इतिहास पर दृष्टि डालों तो तुम देखोगे कि सर्वत्र छोटे छोटे सुगठित राष्ट्र बड़े-बड़े असंगठित राष्ट्रों पर शासन कर रहे है। ऐसा होना स्वाभाविक है क्योंकि छोटे संगठित राष्ट्र अपने भावों को आसानी के साथ केन्द्रीभूत कर सकते है और इस प्रकार वे अपनी शक्ति को विकसित करने में समर्थ होते है। दूसरी ओर जितना बड़ा राष्ट्र होगा उतना ही संगठित करना कठिन होगा। वे मानों अनियंत्रित लोगों की भीड़ मात्र है। वे कभी परस्पर संबंद्ध नहीं हो सकते। इसलिए ये सब मतभेद के झगड़े एकदम बंद होने चाहिए।
यह सही है कि भारत का भविष्य नवयुवकों के कंधे पर है। भारत तभी एक सुदृढ़ राष्ट्र बन सकता है जब यहाँ के युवा स्वस्थ, बलवान तथा आत्मविश्वासी हो। विवेकानंद ने कहा है कि अपने आप पर अगाध, अटूट विश्वास रखों वैसा ही विश्वास जैसाकि मैं बाल्यकाल में अपने ऊपर रखता था और जिसे मैं अब कार्यान्वित कर रहा हूं। तुममें से प्रत्येक अपने आप विश्वास रखो। यह विश्वास रखो कि प्रत्येक आत्मा में अनंत शक्ति विघमान है। तभी तुम सारे भारतवर्ष को पुनरुज्जीवित कर सकोगे। ऊंची अभिलाषा रखो और अपनी जाति, देश, राष्ट्र और समग्र मावर्मानव समाज के कल्याण के लिए आत्मोत्सर्ग करना सिखो।
विवेकानंद जाति, समाज, त्याग तथा आत्मविश्वास के प्रति अपने जो विचार दिए है उन्ही के आधार पर भारत का भविष्य गढ़ा जा सकता है। किसी भी राष्ट्र के निर्माण में युवकों के साथ-साथ वहाँ के प्रत्येक नागरिक की यह जिम्मेदारी है कि अपने हिस्से के कार्य को ईमानदारी से बखूबी अंजाम दे। तभी हम अपने स्वर्णिम अतीत को भविष्य में ला सक
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