नीरज कुमार पांडे जिला संवाददाता बस्ती
साहित्य और पत्रकारिता का घनिष्ठ संबंध रहा है। जिस प्रकार से पत्रकारिता में विभिन्न प्रकार के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व धार्मिक विषयों के संदर्भ में सूचना तथा वर्णन-विश्लेषण रहता है उसी प्रकार से साहित्य में भी। सहित्य भवः साहित्यम् शब्द का तात्पर्य हित साधन की भावना से है। जिस प्रकार से साहित्य में समाज के अंतिम जन का ध्यान रखा जाता है उसी प्रकार से पत्रकारिता में भी समाज अंतिम पायदान पर स्थित व्यक्ति के हितों को स्थान मिलता है। यह और बात है कि आजकल की पत्रकारिता अपने पथ से भटकता जा रहा है। हिंदी साहित्य के आरंभ में देखा जाय तो उस समय पत्रकारिता का उद्भव नहीं हुआ था। उस दौर के कवि प्रायः राजदरबारों में रहा करते थे तथा राजा और सामंतों के प्रशंसा के गीत गाया करते थे। उनके गीतों से प्रसन्न होकर राजा उन्हें आजीविका के साधन मुहैया कराया करते थे। एक तरह से देखा जाए तो उस समय के कवि भाट या चारण ही थे। उनका समाज के सुख दुख से कुछ लेना-देना नहीं होता था। यही कारण है कि हिन्दी साहित्य के इस युग को चारणकाल कहा जाता है। इस दौर के साहित्य में आमजनमानस के छवि का वर्णन नहीं मिलता है। अक्सर राजाओं की वीरता या प्रेमकथाओं का अतिरंजन वर्णन ही है। पर आगे चलकर हिंदी साहित्य की यह जो परंपरा थी वह परिवर्तित हुई तथा इसमें आमजनमानस की दुश्वारियों को जगह मिलने लगी। आधुनिक काल जिसे भारतेंदु युग के नाम से जाना जाता है में विभिन्न गघ विधाओं का विकास हुआ तथा साहित्य समाज से इस कदर जुड़ गया कि भारतीय समाज को जानने के लिए साहित्य ही पर्याप्त हो गया तभी आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को कहना पड़ा कि साहित्य समाज का दर्पण है। विभिन्न गघ विधाओं के साथ साथ पत्रकारिता भी इस युग की साहित्य की एक प्रमुख विधा बनकर उभरी।
न केवल हिंदी साहित्य बल्कि वैश्विक स्तर पर देखा जाय तो बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों का पत्रकारिता से अच्छे संबंध रहे है। यूरोप में नवजागरण के समय जब राजशाही और चर्च के बीच टकराव को देखते हुए उस दौर के बुद्धिजीवियों ने आमजनमानस की भावनाओं को व्यक्त करने में जोखिम उठाते हुए भी साथ दिया। सामाजिक न्याय और आर्थिक समृद्धि के साथ आम आदमी के भागीदारी के संकल्प को लेकर जिस पत्रकारिता का श्रीगणेश हुआ उसमें साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों की अहम भूमिका रही है। जब 1649 ई. में इग्लैंड के बादशाह चार्ल्स प्रथम को मृत्युदंड दिया गया था तो उस समय के उग्रवादियों के नेता आलिवर क्रामवेल की प्रशंसा उस समय के चर्चित कवि जान मिल्टन ने भी किया था। इसी प्रकार वैश्विक स्तर पर नोबेल पुरस्कार विजेता जार्ज बर्नाड शा, अर्नेस्ट मिलर हेमिंग्वे, जार्ज आरवेल, गेब्रियल गार्सिया आदि अनेक ऐसे व्यक्तित्व है जो श्रेष्ठ साहित्यकार होने के साथ-साथ अच्छे पत्रकार भी थे।
हिंदी साहित्य की बात किया जाय तो यह एक सामान्य अध्येता भी जानता है कि 30 मई 1826 ई. को हिन्दी का पहला समाचार पत्र उदंत मार्तंड कोलकाता से प्रकाशित हुआ। यह एक साप्ताहिक अखबार था। लेकिन इस बात की जानकारी कम ही लोगों को होगी कि इस अखबार के संपादक पंडित युगल किशोर शुक्ल एक अच्छे साहित्यकार व कवि थे। इस तरह से कहा जा सकता है कि हिंदी पत्रकारिता का जन्म एक तरह से साहित्यिक पत्रकारिता के रुप में हुआ। यह जो समाचार का सूर्य प्रकाशित हुआ उसकी प्रस्तुती में एक प्रकार से चुटिलापन विद्यमान था जिसमें साहित्यिक आभा की स्पष्ट छाप दिखाई देती है। प्रसिद्ध विद्वान नारायण दत्त ने इस पत्र के संदर्भ में लिखा है कि इससे यह सिद्ध होता है कि हिन्दी पत्रकारिता के आदिपुरुष को पत्रकार के प्रथम कर्तव्य की बड़ी सही और स्पष्ट पहचान थी।
हिंदी में साहित्यिक पत्रकारिता की यदि बात हो रही है तो लगे हाथ इसके विकास के विषय में थोड़ी बहुत चर्चा कर लेना आवश्यक है। उदंत मार्तंड के प्रकाशित होने से अखबारों में एक तरह से सर्जनात्मकता का प्रभाव देखा जा सकता है। इस प्रकार इस पत्र के प्रकाशन के साथ जो साहित्यिक पत्रकारिता टिमटिमा रही थी उसे भारतेंदु हरिश्चंद्र ने कविवचन सुधा नामक पत्रिका से पूर्ण प्रकाशित कर दिया। यही पत्रिका हिंदी में साहित्यिक पत्रिकाओं की प्रवर्तक बनी। भारतेंदु के पूर्व यदि देखा जाय तो उस समय जो पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही थी। वे लोगों में खबर पढ़ने के प्रति जिज्ञासा तो उत्पन्न कर रही थी पर इस आकर्षण को घनीभूत करने का कार्य भारतेंदु हरिश्चंद्र ने किया। इन्होंने अपने पत्रों के माध्यम से एक विशाल पाठक वर्ग तैयार किया। भारतेंदु ने जो पाठकवर्ग तैयार किया उसे अपनी लेखनी व संपादन कला के माध्यम से काफी हद तक परिपक्व भी बनाया। यह भारतेंदु हरिश्चंद्र के प्रयासों का ही परिणाम था कि हिन्दी खड़ीबोली की जो साहित्यिक धारा थी वह समृद्धि होती चली गई। इन्होंने साहित्यिक पत्रकारिता की इतनी भरी पूरी साहित्यिक परंपरा निर्मित कर दी कि आगे चलकर उसका अध्ययन बाकायदा कालखंडो में विभाजित किया जाना लगा। आगे चलकर भारतमित्र, हिंदी प्रदीप, आनंद कादम्बिनी, ब्राह्मण और सरस्वती आदि अनेक श्रेष्ठ पत्रिकाएं हिंदी पत्रकारिता को समृद्धि करती रही।
यह सही है कि उस समय के जो साहित्यकार जैसे भारतेंदु हरिश्चंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, गणेश शंकर विघार्थी, प्रेमचंद, माखनलाल चतुर्वेदी, बालमुकुन्द गुप्त, अंबिका प्रसाद बाजपेई, सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय तथा धर्मवीर भारती आदि जो साहित्यकार थे। उनके विषय में यह तय कर पाना मुश्किल है कि उनका योगदान साहित्य मे अधिक है या पत्रकारिता में। उस समय हिंदी साहित्य और पत्रकारिता एक दूसरे के पूरक व संगी-साथी थे। प्रत्येक प्रकार की पत्रकारिता साहित्य के बिना अधूरी लगती थी। उन समाचार पत्रों में साहित्य का विशेष ख्याल रखा जाता था। उस दौर के पत्रकार, संपादक तथा उपसंपादक प्रायः ऐसे व्यक्ति होते थे जिनका साहित्य के प्रति स्वाभाविक अभिरुचि होती थी। आमतौर पर पत्रों के संपादक साहित्यकार ही हुआ करते थे या उनका साहित्य के प्रति विशेष लगाव रहता था। भारतेंदु हरिश्चंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, इलाचंद जोशी तथा धर्मवीर भारती जैसे लेखकों के साहित्यिक पत्रकारिता के अवदान को कौन भूला सकता है?
वर्तमान समय में यह देखा जा सकता है कि साहित्य और पत्रकारिता एक दूसरे से बनाते जा रहा है। आज के पत्रकारिता में कार्यरत व्यक्तियों को देखा जाय तो उसमें कुछ को छोड़कर साहित्य के संदर्भ में ककरहा तक भी ज्ञात नहीं है। मुझे एक प्रसंग याद आता है कि एकबार हमने एक पत्र में संपादक को एक लेख दिया तो उसमें कुछ ऐसे शब्द थे जिसके उन्हें अर्थ नहीं मालूम थे। संपादक महोदय से जब हमने पूछा कि आप कितने समय से पत्रकारिता कर रहे है? तो उन्होंने बड़े गर्व से बताया पिछले पन्द्रह बीस सालों से। मुझे यह जानकर हैरानी हुई। पर जब हमने विश्लेषण किया तो पाया कि इसका प्रमुख कारण साहित्य के प्रति दुराव से है। ऐसी स्थिति जब संपादकों की है तो फिर एक सामान्य सामान्य पत्रकार इस बात की उम्मीद कैसे किया जा सकता है? कि वह साहित्य के प्रति अभिरुचि रखे। दूसरी ओर देखा जाए तो साहित्य का मूलतत्व संवेदना मानी जाती है। इस वैज्ञानिक युग में संवेदना का निरंतर क्षरण होता दिखाई दे रहा है। आजकल साहित्यकारों कि जो नई पौध उग रही है वे जोड़ जुगत में ज्यादा तत्पर दिखाई दे रहे है। उनके लेखन में सह्रदयता का अभाव मिलता है। यही कारण है कि आजकल साहित्यिक पत्रकारिता का संसार तू-तू, मैं-मैं का मैदान बनता जा रहा है। पत्रकारिता में अब केवल सूचनाओं की तथ्यपरकता मिल रही है। उनके लेखनी में अब वह संवेदनशीलता नहीं मिलती है जिसे पढ़कर पाठक का अन्तर्मन झकझोर उठता हो। इसका कारण पत्रकारिता को सिर्फ शान शौकत, दलाली तथा आजीविका का साधन बना लेना है।
साहित्य और पत्रकारिता कि यह जो दूरी बढ़ती जा रही है उसका दोष सिर्फ मीडिया पर मढ़ दिया जाता है। परन्तु इसके दोषी साहित्यिक गतिविधियां भी है जिसके कारण आमजन का साहित्य के प्रति मोहभंग होता जा रहा है। हिंदुस्तान अखबार के संपादक शशिशेखर ने इस संदर्भ में कहा है कि आमतौर पर लोग सोचते है कि साहित्यकार जितना बढ़िया लिखते है उतना अच्छा उनका व्यक्तित्व होगा लेकिन जब उनका मानवीय पक्ष देखते है तो वह उतना महान नहीं दिखता। यों जरुरी नहीं कि कोई भी व्यक्ति निजी जिंदगी में महान ही हो, क्योंकि वह भी इन्सान होता है। मैं साहित्यकारों के प्रति कोई विकृति नहीं रख रहा, न ही कोई द्वेष है, पर मैने नजदीक से अनुभव किया है कि साहित्य के लोग अपनी लिखत में बड़ी बड़ी बातें तो करते हैं लेकिन असल जिंदगी में जिम्मेदारी निभाते हुए नहीं दिखाई देते। उनका यह मंतव्य साहित्यकार या पत्रकार की नैतिकता में आई गिरावट की ओर संकेत करता है।
इस प्रकार हम कह सकते है कि साहित्य और पत्रकारिता में आए इस दुराव से जुड़ाव की ओर बढ़ने के लिए हमें पत्रकारिता के कुछ मानक बनाने होंगे। यह आमतौर पर देखा जाता है कि जब व्यक्ति अपने लक्ष्य को हासिल करने में असमर्थ होता है तो वह पत्रकार बन जाता है। उनके मन में यह धारणा बन गई है कि पत्रकार बनना कितना आसान है? पत्रकार बनने के लिए जो विद्वत्ता, निष्ठा तथा समर्पण की जरुरत होती है उसकी वे कोई आवश्यकता नहीं समझते हैं। ऐसे पत्रकार भी है जिन्हें पत्रकारिता के छह ककार भी नहीं मालूम है तो साहित्य का ककहरा बड़ी दूर की बात लगती है। हमें यह धारणा बदलनी होगी कि पत्रकारिता सिर्फ सूचनाओं का आदान-प्रदान नहीं है बल्कि इसमें तथ्यों का विवेचन-विश्लेषण और मूल्यांकन की जरुरत भी पड़ती है जो बिना साहित्य के ज्ञान के अंधूरा है। इस पत्रकारिता को संवारने के लिए साहित्य रुपी आभूषण की परम आवश्यकता है।
नीरज कुमार वर्मा नीरप्रिय
किसान सर्वोदय इंटर कालेज रायठ बस्ती उ. प्र.
8400088017
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